Saturday, January 21, 2012

पर घर न छूटे

(यात्रा से जुड़ी अदम्य इच्छाओं पर एक कविता, 
साथ में साल्वाडोर डाली का चित्र) 
अनगिन लालसाएं 
अनगिन यात्राओं की 

न कोई पर्वत छूटे 
न जंगल 
न दरिया 
न पठार 

बियाबान छूटे 
सागर 
न रेत 
न तलछट 

न दर्रा छूटे कोई
न कंदरा 
न घाटी 
न आकाश 

न उत्तर छूटे 
न दक्षिण 
न पूरब 
न पश्चिम 

न रंगीनी छूटे 
न वीरानगी 
न आनगी छूटे 
न रवानगी 

अनगिन लालसाएं 
अनगिन यात्राओं की 
कि धरती का 
कोई छोर छूटे 

पर घर न छूटे 
यह संभव कहां! 

('जनसंदेश टाइम्स' में 1 अप्रैल 2012 को प्रकाशित)

27 comments:

  1. सुन्दर सृजन , सुन्दर भावाभिव्यक्ति.
    please visit blog.

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  2. कुछ छूटता कहाँ ?
    छोड़ना पड़ता है
    अच्छी रचना

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  3. घर ही तो छूट जाता है .... फिर सबकुछ इर्द गिर्द होकर भी दूर होता जाता है ...

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  4. वाह …………कितनी गहरी बात कह दी।

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  5. jeevan bhi yaatra hai..kai patthaar..kai pahaad..kai saagar paar karne padte hain..jeevan ki ghaati mein gehre utar ke dekho to baaki ki yaatraayein maamooli lagne lagti hain..

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  6. घर और उसकी यादें तो हर सफर में साथ रहती हैं ... छूटती नहीं ...

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  7. जो घर फूंके आपणो चले हमारे साथ।

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  8. भावपूर्ण रचना.... यही सच है...

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  9. बहुत खूब.......
    कुछ पाया तो क्या???कुछ खोया भी तो!!!

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  10. अनगिन लालसाएं
    अनगिन यात्राओं की
    कि धरती का
    कोई छोर न छूटे
    चाहे जो भी छूटे,पर घर न छूटे....

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  11. माधवी जी,...वाह बहुत खूब,सार्थक अभिव्यक्ति सुंदर रचना,बेहतरीन पोस्ट....
    new post...वाह रे मंहगाई...

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  12. `हजारों ख्वाहिशें ऐसी...`

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  13. इतना सब कुछ न छोड़ने की चाह में घर ही छूट जाता है ..गहन अभिव्यक्ति

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  14. रश्मि प्रभा जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ ...समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है

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  15. कितना छूट चुका
    कितना छूट रहा है
    सब कुछ छूट जायेगा
    एक दिन शायद
    या फिर छूट जाऊंगा
    मैं?

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  16. वाह बहुत खूब


    अनगिन लालसाएं
    अनगिन यात्राओं की
    कि धरती का
    कोई छोर न छूटे
    चाहे जो भी छूटे,पर घर न छूटे...............

    पर ऐसा होना संभव कहाँ ...दोनों में से एक का ही साथ रहेगा ..घर या लालसाएं.......चुनना हमको ही हैं ...आभार

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  17. ये कविता पढ़ कर ग़ालिब का शेर -" बहुत निकली मेरे अरमान फिर भी कम निकले..." याद आ गया....पढ़ कर अच्छा लगा-
    राजू पटेल.

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  18. सुन्दर..बहुत सुन्दर कवितायें!! :)

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  19. सॉरी, कवितायें नहीं..कविता :)

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  20. माधवी जी , हम जिस दुनियॉ में जी रहे हैं उसका नाम ही मृत्युलोक है , यहॉ से तो सब कुछ छोड कर जाना पडेगा पर चूँकि हम घर से बँधी हैं , हमें घर से विशेष लगाव होता है । सुन्दर कविता , बधाई ।

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